मेरी साँसों में यही दहशत समायी रहती है मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा ।
यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा ।
जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पे ठहरे वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा ।
मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा ।
मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन यूँ ही चलते रहे तो सोचो , ज़रा अमन का क्या होगा ।
अहले -वतन इन शोलों के हाथों दामन न अपना दो दामन - रेशमी है देख लो"दीपक "दामन का क्या होगा । कवि दीपक शर्मा http://www.kavideepaksharma.com जन -चेतना के लिए ,समाज के लिए ताकि लोग चुनाव में सोच समझकर मतदान करें. Kindly forward this upto the last man of india for a mission to built new Bharat......Ek sapno ka Desh