Hindi Literature
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Linaniaj (वार्ता | योगदान)
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'''मुखपृष्ठ: [[समर निंद्य है / रामधारी सिंह "दिनकर"]]'''
 
 
   
 
वह जो बना के शान्ति-व्यूह सुख लूटता या<br>
 
वह जो बना के शान्ति-व्यूह सुख लूटता या<br>

२०:४१, २४ जनवरी २००८ का अवतरण

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CHANDER

वह जो बना के शान्ति-व्यूह सुख लूटता या
वह जो अशान्त हो क्षुधानल से जलता?
कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता !
या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?

पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रान्ति है।
शोषण की श्रृंखला के हेतु बनती जो शान्ति,
युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशान्ति है;
सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व की है,
ईश की अवज्ञा घोर, पौरुष की श्रान्ति है;
पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
ऐसी श्रृंखला में धर्म विप्लव, क्रान्ति है।

भूल रहे हो धर्मराज, तुम
अभी हिंस्र भूतल है,
खड़ा चतुर्दिक अंधकार है,
खड़ा चतुर्दिक छल है।

मैं भी सोचता हूँ जगत से
कैसे उठे जिघाँसा,
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर
करुणा, प्रेम, अहिंसा।

जियें मनुज किस भाँति परस्पर
हो कर भाई-भाई
कैसे रुके प्रदाह क्रोध का,
कैसे रुके लड़ाई।

पृथ्वी हो साम्राज्य स्नेह का,
जीवन स्निग्ध, सरल हो,
मनुज-प्रकृति से विदा सदा को
दाहक द्वेष-गरल हो।

बहे प्रेम की धार, मनुज को
वह अनवरत भिगोये,
एक दूसरे के उर में नर
बीज प्रेम के बोये।

किन्तु, हाय, आधे पथ तक ही
पहुँच सका यह जग है,
अभी शान्ति का स्वप्न दूर
नभ में करता जगमग है।

भूले-भटके ही पृथ्वी पर
वह आदर्श उतरता,
किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
ही स्वरूप है धरता।

किसी, द्वेष के शिला-दुर्ग से
बार-बार टकरा के,
रुद्ध मनुज के मनोदेश के
लौह-द्वार को पा के;

घृणा, कलह, विद्वेष, विविध
तापों से आकुल हो कर,
हो जाता उड्डीन एक-दो
का ही हृदय भिगो कर।