पनघट ( चम्बल घाटी से )
(१)
इस युग में जब नल दमयंती नल का जल पीते हैं ,
और बहुत से बाग- खेत , नल – कूपों पर जीते हैं |
तब कुछ प्यासे गाँव किनारे ऐसे भी सैलानी ,
जो बारहों महीने पीते नदिया का ही पानी |
(२)
भीतर – बाहर धुलीं गागरें आतीं ललक – ललक कर ,
हो – होकर भरपूर लौटती हैं फिर छलक – छलक कर |
दृश्य देखना है तो आओ , तट से कुछ हट जायें ,
बरगदिया की घनी छाँह में थोड़ा समय बितायें |
(३)
भरे घड़े लेकर ऊँचे घर तक जाना पड़ता है ,
इसीलिए प्रायः प्रमदाओं को आना पड़ता है |
यहाँन यौवन का मानी है केवल काम- पिपासा ,
कलित कलेवर को न मिल सकी, काहिल की परिभाषा |
(४)
कोमलता का काम – काज से भी नाता जुड़ता है ,
धुप – हवा में भी कपूर – सा रूप नहीं उड़ता है |
गंगा देवी – जमुनारानी की टोली आती है ,
कृष्णा और शारदा के संग नरमदिया गाती है |
(५)
“पनियाँ भरन जाऊं कैसे, मेहंदी लगी मोरे पाँउन में,
बीरन हूँ न लिबाउन आये मोहि भरे साउन में |
सास – ननदिया ताना मारे नौंन परे घाउन में,
पनियाँ भरन जाऊँ कैसे, मेंहदी लगी मोरे पाउन में |
(६)
उत पीपर की डार पपिहरा , पिक – पिक करि बोले ,
इत आमन की डार कुइलिया कुहू – कुहू कर डोले |
बैरी बिछुआ कांटा मारै विरहिन के, गाउन में,
पनियाँ भरन जाऊँ कैसे , मेंहदी लगी मोरे पाउन में |
(७)
विविध स्वरों में एक गीत सब टोली गाती ऐसे ,
झरने कई मिलाकर नदिया धार बहाती जैसे |
मधुरिम सरगम धीमें – धीमें समा रहा घाटी में ,
मानों तानसेन सोता हो शारमीली माटी में |
(८)
झुकीं हुई नजरें भरती हैं लाज – शरम की साखें ,
आब आबरू की रक्खे हैं अबलाओं की आँखें |
लटे – फटे कपड़ों – लत्तों में यौवन लहक रहा है ,
मानों तितर – बितर पत्तों में मधुवन महक रहा है |
(९)
आषाढी पुरवा– सी कोई रस बरसाती जाती ,
कोई सराबोर सावन के लहरा सी लहराती |
कोई भादों सी कजरारी , मन की भोरी – भोरी ,
कोई शरद – बदरिया जैसी तन की गोरी – गोरी |
(१०)
यमुना की लहरों – से गूँथे भँवरों जैसे काले,
घुंघराले केशों में कोई खोंसे फूल निराले |
तारों भरी अमावस्या की एक मांग सिन्दूरी ,
पूनम के चन्दा को छूकर हो जाती है पूरी |
(११)
पिछली होली का चमकीला पहने चीर बसंती ,
कोई किसी बिहारी कवि की रचना – सी रसवन्ती |
मेंहदी रची हुई एडी जब धरती पर धरती है ,
तब पग चूम – चूमकर माटी कोयल – सी हँसती है |
(१२)
भोली चितवन देख हिरनियाँ लज्जित हो जाती हैं ,
बिना डोरियों के धनुषों – सी भौहें बल खाती हैं |
खंजन इनसे आँख मिलाने हर कुंवार में आये ,
लेकिन पूँछ हिलाने के अतिरिक्त न कुछ कर पाये |
(१३)
वन– वन भटका– थका पवन जब आँचल तक आता है ,
जन- गन– मन के सहज गीत का सरगम पा जाता है |
इन्हें प्रफुल्लित देख – देखकर कलियाँ भी पुलकाईं ,
लेकिन तिरछे मुसकाने की नक़ल नहीं कर पाईं |
(१४)
कहाँ मालिनी ! कहाँ कण्व का आश्रम ! कौन बताये ,
किन्तु यहाँ कोई शकुन्तला के दर्शन कर जाये |
रही बात मृगछौनेकी , मृगछौना वन में होगा,
वन में नहीं भवन में होगा या फिर मन में होगा |
(१५)
बहुतों के दाम्पत्य – सरोवर में शतदल भी होंगे,
लेकिन वे अपनी आजी के ढिंग घर पर ही होंगे |
जब तक महतारी नदिया से जल भर कर आयेगी ,
तब तक बूढी दादी नन्हां – मुन्ना दुलरायेगी |
(१६)
उषाकाल गौधूली बेला हँसते होंगे घर पर ,
यौवन की दोपहरी जाती गाती हुई डगर पर |
धार उमड़ने से कछार में नीर बहा करता है ,
प्यार उमड़ने से आंचल में क्षीर बहा करता है |
(१७)
अंकगणित की बिन्दी हारी माथे की बिंदिया से ,
अनगिन मुक्ताओं का पानी लाती जो नदिया से |
केवल चलती है न शीश पर जल का घड़ा ले ,
जननी होकर भरे दूध के दो घट और संभाले |
(१८)
दूध वही, पीकर जिसको “शिशु” नवजीवन पाता है ,
शिशु भी कौन ? आदमी का जो पिता कहा जाता है |
स्वाभिमान से सीना ताने जाती एक भवानी ,
मानो पिछले जनम रही हो यह झाँसी की रानी |
(१९)
षटकारी वेणी पर कोई मोर न घात लगाये ,
उसको मेंढ़क समझ कहीं यह नागिन निगल न जाये |
पानी भरने जाती है अपने राजा की रानी ,
इसका यह मानी न कि उसके घट में रहा न पानी |
(२०)
यहाँ न पार्क राजधानी के, जिनमें चपल तितलियाँ ,
आवारा फूलों से करती नाजायज रंगरलियाँ |
काम यहाँ पर बदचलनी के बीज नहीं बोता है ,
हर राधा का सिर्फ एक ही साँवलिया होता है |
(२१)
गँवई गाँव गुलाब खिले हैं काँटे लिये हुये हैं ,
मद से दूर एक मर्यादा का मधु पिये हुये है |
दुर्गावती, किरण, सावित्री , सीता की संताने ,
जल भरने जा रहीं निपनियाँ होना वे क्या जाने |
(२२)
भामिनियों ने पानी वाले ऐसे पूत जने हैं ,
जबड़े खोल जिन्होने नाहर के भी दांत गिने हैं |
ऐसे घाटों के पानी ने अपना नाम कमाया ,
पीने वाले ने भारत को भारतवर्ष बनाया |
(२३)
रीति काल के कलाकार की यहीं कल्पनायें हैं ,
केशव, देव, रहीम आदि की यही नायकायें हैं |
तुलसी की ये ग्राम बघूटी दादू की हैं गुईयाँ ,
डुलिया लेकर विदा करता है कबीर का सइयां|
(२४)
जब से पनघट बना तभी से प्यासे घट आते हैं,
‘नहीं’ किसी के लिए नहीं है सब भर ले जाते हैं |
किसी प्यास पर जाति – पाति के बन्धन नहीं लगे हैं ,
सभी एक माटी के भांड़े होकर सदा लगे हैं |
(२५)
अपने अपने रीतेपन को लेकर घट आते हैं,
‘नहीं’ किसी के लिये नहीं है, सब भर ले जाते है |
देने वाले ने दाता का पूरा कौल निभाया ,
जिसको जैसा पात्र मिला है उसने वैसा पाया |
(२६)
कुछ घट भरने लगींऔर कुछ सुस्ताने बैठी हैं ,
कोई मछली सी ललचाकर धारा में पैठी है |
अच्छा तो अब दादू की वे गुईयाँ खूब नहायें ,
बरगदिया की घनी छाँह से हम भी पांव हटायें |