CHANDER
पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसाँ पाये हैं
तुम शहरे-मोहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आये हैं
बुतख़ाना समझते हो जिसको पूछो न वहाँ क्या हालत है
हम लोग वहीं से लौटे हैं बस शुक्र करो लौट आये हैं
हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहाँ
सहरा में ख़ुशी के फूल नहीं शहरों में ग़मों के साये हैं
होठों पे तबस्सुम हल्क़ा सा आँखों में नमी सी है 'फ़ाकिर'
हम अहले-मोहब्बत पर अक्सर ऐसे भी ज़माने आये हैं