CHANDER<poem>मूत और गोबर की सारी गंध उठाए
हवा बैल के सूजे कंधे से टकराए
खाल उतारी हुई भेड़-सी
पसरी छाया नीम पेड़ की।
डॉय-डॉय करते डॉगर के सींगों में
आकाश फँसा है।
दरवाज़े पर बँधी बुढ़िया ताला जैसी लटक रही है। (कोई था जो चला गया है) किसी बाज पंजों से छूटा ज़मीन पर पड़ा झोपड़ा जैसे सहमा हुआ कबूतर दीवारों पर आएँ-जाएँ चमड़ा जलने की नीली, निर्जल छायाएँ।
चीखों के दायरे समेटे ये अकाल के चिह्न अकेले मनहूसी के साथ खड़े हैं खेतों में चाकू के ढेले। अब क्या हो, जैसी लाचारी अंदर ही अंदर घुन कर दे वह बीमारी।
इस उदास गुमशुदा जगह में जो सफ़ेद है, मृत्युग्रस्त है
जो छाया है, सिर्फ़ रात है जीवित है वह - जो बूढ़ा है या अधेड़ है और हरा है - हरा यहाँ पर सिर्फ़ पेड़ है
चेहरा-चेहरा डर लगता है घर बाहर अवसाद है लगता है यह गाँव नरक का भोजपुरी अनुवाद है।